एक बार स्वामी विवेकानंद ने अपने शिष्य को एक कहानी सुनाई। एक तत्वज्ञानी अपनी पत्नी से बोले - 'संध्या आने वाली है। अपना काम समेट लो।'
एक सिंह कुटिया के पीछे बैठा यह सुन रहा था। उसने समझा कि संध्या कोई बड़ी शक्ति है जिससे डरकर यह तत्वाज्ञानी अपना काम समेटने को विवश है। सिंह संध्या के डर से चिंता में डूब गया और एक स्थान पर जाकर छिप गया।
इधर एक धोबी दिन छिपने पर घाट से अपने कपड़े समेटकर गधे पर लादने की तैयारी करने लगा लेकिन गधा गायब था। वह उसे ढूंढ़ने के लिए निकल पड़ा। रात घिर आई और पानी बरसने लगा। तभी देखा कि एक जगह गधा छिपा हुआ है। उसने उस पर डंडे बरसाते हुए कहा - 'धूर्त! तू यहां छिपकर बैठा है।' लेकिन वह गधा नहीं, वही सिंह था जो संध्या के डर से छिप गया था। जब सिंह की पीठ पर डंडे पड़े तो उसने समझा कि यही संध्या है इसलिए वह डर से थर-थर कांपने लगा। धोबी उसे घसीट लाया और कपड़े लादकर घर चल दिया।
उस सिंह को रास्ते में एक दूसरा सिंह मिला। उसने अपने साथी की दुर्गति देखकर पूछा - 'यह क्या हुआ? तुम इस प्रकार लदे क्यों फिर रहे हो?'
सिंह ने कहा - 'संध्या के चंगुल में फंस गया हूं। यह बुरी तरह पीटता है और भारी वनज लाद देती है।'
सिंह को कष्ट देने वाली संध्या नहीं, उसकी भ्रांति थी जिसके कारण उसने धोबी को देव-दानव समझ लिया और वजन लदवा लिया। इसी प्रकार हमारी भी यही स्थिति है। अपने वास्तविक स्वरूप को न समझने और संसार के जड़ पदार्थों के साथ ठीक तरह से तालमेल न बैठा पाने के कारण हम भ्रांति में पड़े हैं। इस भ्रांति को माया कहते हैं। माया को ही बंधन और दुखों का कारण बताया गया है। यह माया और कुछ नहीं, वास्तविकता से अपरिचित रखने वाला अज्ञान है।
एक सिंह कुटिया के पीछे बैठा यह सुन रहा था। उसने समझा कि संध्या कोई बड़ी शक्ति है जिससे डरकर यह तत्वाज्ञानी अपना काम समेटने को विवश है। सिंह संध्या के डर से चिंता में डूब गया और एक स्थान पर जाकर छिप गया।
इधर एक धोबी दिन छिपने पर घाट से अपने कपड़े समेटकर गधे पर लादने की तैयारी करने लगा लेकिन गधा गायब था। वह उसे ढूंढ़ने के लिए निकल पड़ा। रात घिर आई और पानी बरसने लगा। तभी देखा कि एक जगह गधा छिपा हुआ है। उसने उस पर डंडे बरसाते हुए कहा - 'धूर्त! तू यहां छिपकर बैठा है।' लेकिन वह गधा नहीं, वही सिंह था जो संध्या के डर से छिप गया था। जब सिंह की पीठ पर डंडे पड़े तो उसने समझा कि यही संध्या है इसलिए वह डर से थर-थर कांपने लगा। धोबी उसे घसीट लाया और कपड़े लादकर घर चल दिया।
उस सिंह को रास्ते में एक दूसरा सिंह मिला। उसने अपने साथी की दुर्गति देखकर पूछा - 'यह क्या हुआ? तुम इस प्रकार लदे क्यों फिर रहे हो?'
सिंह ने कहा - 'संध्या के चंगुल में फंस गया हूं। यह बुरी तरह पीटता है और भारी वनज लाद देती है।'
सिंह को कष्ट देने वाली संध्या नहीं, उसकी भ्रांति थी जिसके कारण उसने धोबी को देव-दानव समझ लिया और वजन लदवा लिया। इसी प्रकार हमारी भी यही स्थिति है। अपने वास्तविक स्वरूप को न समझने और संसार के जड़ पदार्थों के साथ ठीक तरह से तालमेल न बैठा पाने के कारण हम भ्रांति में पड़े हैं। इस भ्रांति को माया कहते हैं। माया को ही बंधन और दुखों का कारण बताया गया है। यह माया और कुछ नहीं, वास्तविकता से अपरिचित रखने वाला अज्ञान है।
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